झिलमिलाते दीप देखो
लग रहे कितने सलोने
कार्तिक की प्रात भीगी
दूब जैसे ओस से
तैल मदिरा पी लहरते
हैं हुए मदहोश से
आज ये ही बन गए हैं
बाल टोली के खिलौने
दीप्ति रवि की हैं चुराए
दिये माटी-धूर के
देखते तूफान को भी
साहसी ये घूर के
पंक्ति-पंक्ति उजास बिखरी
दीखते नभ नखत बौने
रात है काली अमावस की
सुमेरु सी बनी
झोपड़ी के द्वार दीपक
लग रहे संजीवनी
प्रगति युग में भी ये थाती
आस्था की चले ढोने
-ओमप्रकाश तिवारी
लग रहे कितने सलोने
कार्तिक की प्रात भीगी
दूब जैसे ओस से
तैल मदिरा पी लहरते
हैं हुए मदहोश से
आज ये ही बन गए हैं
बाल टोली के खिलौने
दीप्ति रवि की हैं चुराए
दिये माटी-धूर के
देखते तूफान को भी
साहसी ये घूर के
पंक्ति-पंक्ति उजास बिखरी
दीखते नभ नखत बौने
रात है काली अमावस की
सुमेरु सी बनी
झोपड़ी के द्वार दीपक
लग रहे संजीवनी
प्रगति युग में भी ये थाती
आस्था की चले ढोने
-ओमप्रकाश तिवारी
दीपों की बातें निराली ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रसतुति
रात है काली अमावस की
जवाब देंहटाएंसुमेरु सी बनी
झोँपड़ी के द्वार दीपक
लग रहे संजीवनी ।
सुन्दर भावपूर्ण नवगीत के लिए ओमप्रकाश जी को बधाई ।
बहुत सुंदर नवगीत है, बधाई स्वीकारें ओमप्रकाश जी
जवाब देंहटाएंदीप्ति रवि की हैं चुराए
जवाब देंहटाएंदिये माटी-धूर के
देखते तूफान को भी
साहसी ये घूर के
बहुत अच्छा नवगीत है। बधाई
दीप्ति रवि की हैं चुराए
जवाब देंहटाएंदिये माटी-धूर के
देखते तूफान को भी
साहसी ये घूर के
पंक्ति-पंक्ति उजास बिखरी
दीखते नभ नखत बौने
बहुत खूब।
सुंदर नवगीत है, बधाई ओमप्रकाश जी
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