17 मार्च 2013

७. फागुन में

सडकों पर
बाजार सजे हैं फागुन में
बहुत दूर से तार बजे हैं
फागुन में।

खेतों में सरसों ने पीला रंग भरा
बौर आम की टहनी-टहनी पर उतरा
नीम झूमने लगी मस्त हो
फागुन में।

पीपल महुआ सभी
नहाकर निकले हैं
बूढे बरगद ने भी कपडे बदले हैं
कोयल का संगीत चल रहा
फागुन में।

रूप रंग से धरती जहाँ नहाती है
महानगर मे याद गाँव की आती है
नया नहीं कुछ यहाँ
कहीं भी फागुन में।

-भारतेन्दु मिश्र
(नई दिल्ली)

4 टिप्‍पणियां:

  1. फागुन पर सुन्दर नवगीत,आभार.

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  2. बहुत सुंदर नवगीत है। नवगीत की परिभाषा लिखी जाय तो इस गीत को उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है। भारतेन्दु जी को बहुत बहुत बधाई।

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  3. भारतेन्दु भाई की यह रचना नवगीत की कहन को, निश्चित ही, एक नया आयाम देती है| 'रूप रंग से धरती जहाँ नहाती है
    महानगर मे याद गाँव की आती है
    नया नहीं कुछ यहाँ
    कहीं भी फागुन में।'
    होली-गीत और ये पंक्तियाँ - नवगीत के आज के समय के सरोकार-वैविध्य की बानगी देती| सब कुछ अद्भुत-अभिनंदनीय!

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  4. अनिल वर्मा, लखनऊ.20 मार्च 2013 को 8:56 am बजे

    बहुत दूर से तार बजे हैं
    फागुन में।
    रूप रंग से धरती जहाँ नहाती है
    महानगर मे याद गाँव की आती है
    बहुत ही सुन्दर. हार्दिक बधाई भारतेंदु जी.

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