17 मार्च 2010

३०- आँगन में बासंती धूप : अजय गुप्त

शिखरों से घाटी तक सोना सा बिखर गया,
आँगन में बासंती धूप उतर आई है।

खेतों से पनघट तक
कोहरा ही कोहरा था,
कहीं नहीं हलचल थी
सब ठहरा-ठहरा था।
हिम निर्मित चोली के बटन सभी टूट गए,
मधुऋतु ने कुछ ऐसी ले ली अँगड़ाई है।

प्रकृति, पुरुष सब पर ही
बिखर गया रँग-अबीर,
मस्ती में डूब चुका
है युग चेता कबीर।
लपटों ने भून लिए नर्म चने के बिरवे,
बौराए आमों की बस्ती पगलाई है।

तने हुए तेवर
अलसाई पतवारों के,
अब बिस्तर बाँध रहे
काफ़िले सिवारों के।
तट हैं जागे-जागे सूनी सरिताओं के,
लहरों पर हलचल है, काँप रही क्यारी है।

गतिविधियों के पीछे
भाग रही हैं आँखें,
कोटि-कोटि चेहरों पर
जाग रही हैं आँखें।
मौसम की गर्माहट कर रही प्रमाणित यह,
अब नहीं कहीं सीली कोई दियासलाई है।

--
अजय गुप्त
शाहजहाँपुर (उ.प्र.)

9 टिप्‍पणियां:

  1. अभिनव बिंबों से सजा
    एक अभिनव नवगीत!
    --
    रचनाकार की अनूठी दृष्टि ने
    जिस-जिस से हमारा साक्षात्कार कराया,
    वह सब अतुलनीय है!

    जवाब देंहटाएं
  2. शिखरों से घाटी तक सोना सा बिखर गया,
    आँगन में बासंती धूप उतर आई है।
    सुन्दर पंक्तिया, अजय गुप्त जी को बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद
    विमल कुमार हेडा

    जवाब देंहटाएं
  3. खेतों से पनघट तक
    कोहरा ही कोहरा था,
    कहीं नहीं हलचल थी
    सब ठहरा-ठहरा था।
    हिम निर्मित चोली के बटन सभी टूट गए,
    मधुऋतु ने कुछ ऐसी ले ली अँगड़ाई है।

    प्रकृति, पुरुष सब पर ही
    बिखर गया रँग-अबीर,
    मस्ती में डूब चुका
    है युग चेता कबीर।
    लपटों ने भून लिए नर्म चने के बिरवे,
    बौराए आमों की बस्ती पगलाई है।

    uttam ati uttam Bhvabhiyakti Shriman Ajay Guptji.bas yon hi lahlahate rahiye.hamari shubhkamnaen apke sath hain.

    जवाब देंहटाएं
  4. विमल कुमार हेडा जी,
    अब आप कमेंट करने के लिए
    निम्नांकित विधि अपनाया कीजिए -
    1. Choose an identity से
    Anonymous के स्थान पर
    Name/URL के सम्मुख बाईं ओर बने
    गोले पर क्लिक् कीजिए ।
    2. फिर Name के आगे बने आयत में
    अपना नाम लिख दीजिए ।
    URL के आगे बने आयत को
    खाली छोड़ दीजिए ।
    3. Leave your comment के नीचे बने
    बॉक्स में अपना कमेंट लिख दीजिए ।
    4. अंत में Publish Your Comment पर
    क्लिक् कर दीजिए ।

    --
    इस तरह से करने पर
    आपका कमेंट निम्नांकित रूप में चमकेगा -

    जवाब देंहटाएं
  5. विमल कुमार हेडा18 मार्च 2010 को 1:13 pm बजे

    शिखरों से घाटी तक सोना सा बिखर गया,
    आँगन में बासंती धूप उतर आई है ।
    सुन्दर पंक्तिया, अजय गुप्त जी को
    बहुत-बहुत बधाई, धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  6. धन्यवाद रावेंद्रकुमार रवि जी अब मैं अपने विचार मेल बॉक्स द्वारा दिया करूँगा
    विमल कुमार हेडा

    जवाब देंहटाएं
  7. सब कुछ ही नया-नया है इस नवगीत में ।
    अद्भुत कल्पना के साथ अनुपम भाव सौन्दर्य ।
    बधाई तथा धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  8. शिखरों से घाटी तक सोना सा बिखर गया,
    आँगन में बासंती धूप उतर आई है।
    -अजय गुप्त की ये पंक्तियाँ तो सुन्दर हैं ही ;इन पंक्तियों में बिम्ब विधान नूतन कल्पना लिये हुए है-खेतों से पनघट तक
    कोहरा ही कोहरा था,
    कहीं नहीं हलचल थी
    सब ठहरा-ठहरा था।
    हिम निर्मित चोली के बटन सभी टूट गए,
    मधुऋतु ने कुछ ऐसी ले ली अँगड़ाई है।

    जवाब देंहटाएं
  9. दिव्य नर्मदा divya narmada said...

    प्रकृति, पुरुष सब पर ही
    बिखर गया रँग-अबीर,
    मस्ती में डूब चुका
    है युग चेता कबीर।
    लपटों ने भून लिए नर्म चने के बिरवे,
    बौराए आमों की बस्ती पगलाई है।

    बहुत अच्छा... जो कमी पिछले कुछ नवगीतों में थी उसकी भरपाई यहाँ है. 'बिरवे', बासंती, चोली, पगली, सीली, दियासलाई आदि शब्दावली नवगीत को सम्प्राणित करती है. बधाई.

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।