20 अक्तूबर 2012

१. दीप जलने दो


आँधियाँ गरजें
फटें बादल मगर फिर भी
दीप जलने दो !

गर्द में डूबा हुआ मौसम
भयावह धुँधली दिशाएँ हैं
भ्रम सिरजता झूठ है यह सब
सत्य रंगों की छटाएँ हैं

अटपटे ढँग हैं
तमिस्रा के रहें फिर भी
दीप जलने दो !

ग्रहण में घिरकर मिटी कब है
जुगनुओं की देह की पूनम
जीत का जयघोष करते हैं
हरसिंगारों के धवल परचम

राहु-केतु प्रपंच हैं
रह निडर तुम फिर भी
दीप जलने दो !

मत भुलाओ देवताओं के
हो सदा ही से दुलारे तुम
चाहे जो अवतार ले ईश्वर
हो उसे ख़ुद से भी प्यारे तुम

दे झकोले युगनदी
उफनें भँवर फिर भी
दीप जलने दो !!

-- अश्विनी कुमार विष्णु

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर गीत से श्रीगणेश हुआ है। अश्विनी जी, बधाई आपको

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  2. राहु-केतु प्रपंच हैं
    रह निडर तुम फिर भी
    दीप जलने दो !...वाकई बहुत अच्छी बात

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  3. अश्विनी कुमार विष्णु की यह रचना,मेरी राय में, नवगीत की दहलीज ही छू पाई है| नवगीत में जो सहज प्रवाह होना चाहिए, वह इसमें पूरी तरह नहीं आ पाया है| हाँ, अंतिम पदांत 'दे झकोले युगनदी / उफनें भँवर फिर भी / दीप जलने दो' पूरी तरह नवगीत की भंगिमा का है| वैसे यह गीत अपने-आप में अच्छा है| इस गीत के समग्र प्रभाव के लिए विष्णु जी को मेरा हार्दिक अभिनन्दन!

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  4. दे झकोले युगनदी
    उफने भँवर फिर भी
    दीप जलने दो ।
    सुन्दर नवगीत के लिए अश्विनी कुमार विष्णु को बधाई ।

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  5. सुंदर नवगीत के लिए अश्विनी जी को बधाई

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  6. कृष्ण नन्दन मौर्य25 अक्तूबर 2012 को 6:15 pm बजे

    सुंदर गीत बधाई आपको अश्विनी जी

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  7. अँधेरे से लडने की प्ररणा देता है यह नवगीत। बधाई विष्णु जी

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  8. आँधियाँ गरजें
    फटें बादल मगर फिर भी
    दीप जलने दो !

    दीप जलने दो। सच भाई अश्विनी जी बधाई।

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